— पर्यावरण संवाददाता। ऑनलाइन डैस्क,1जुलाई। ग्लोबल वार्मिंग आज एक वैश्विक संकट का रूप ले चुकी है, जिसका असर केवल तापमान बढ़ने तक सीमित नहीं...
— पर्यावरण संवाददाता।
ऑनलाइन डैस्क,1जुलाई।
ग्लोबल वार्मिंग आज एक वैश्विक संकट का रूप ले चुकी है, जिसका असर केवल तापमान बढ़ने तक सीमित नहीं रहा। बाढ़, सूखा, तूफान, समुद्र-स्तर में वृद्धि, कोरल रीफ का नष्ट होना और मलेरिया जैसी बीमारियों का फैलाव, इसके गंभीर दुष्परिणाम हैं। वैज्ञानिकों की राय स्पष्ट है—इस संकट की जड़ें मानवीय गतिविधियों, खासतौर पर जीवाश्म ईंधनों जैसे कोयला, तेल और गैस के अत्यधिक उपयोग में हैं।
कोयले से चलने वाले बिजलीघर, जिनसे भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होती है, वैश्विक तापवृद्धि की बड़ी वजह हैं। यही कारण है कि यूरोप और अमेरिका जैसे विकसित देश इनसे दूर हो रहे हैं। इसके विपरीत, भारत जैसे विकासशील देशों में आज भी कोयले पर निर्भरता बढ़ रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि पुरानी और प्रदूषणकारी कोयला तकनीक को बेचने में नाकाम रही बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अब इन्हें विकासशील देशों में डंप करने की कोशिश कर रही हैं।
हालाँकि, यह परिस्थिति भारत के लिए एक चुनौती से ज़्यादा एक अवसर भी है। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि भारत समय रहते नवीकरणीय ऊर्जा की ओर रुख करे, तो वह न केवल पर्यावरण की रक्षा कर सकता है, बल्कि ऊर्जा आत्मनिर्भरता की दिशा में भी मजबूत कदम बढ़ा सकता है।
सौर, पवन और छोटे पैमाने की पनबिजली जैसी स्वच्छ तकनीकों के माध्यम से बढ़ती ऊर्जा मांगों को पूरा किया जा सकता है। रिपोर्टों के अनुसार, 2040 तक सौर ऊर्जा वैश्विक बिजली ज़रूरतों का 26% और पवन ऊर्जा 12% तक आपूर्ति कर सकती है।
भारत सरकार और निजी क्षेत्र, दोनों को चाहिए कि वे कोयले जैसी गंदी ऊर्जा से दूर रहकर स्वच्छ और टिकाऊ ऊर्जा विकल्पों में निवेश बढ़ाएं। यदि आज निर्णय लिया जाए, तो भविष्य में जलवायु परिवर्तन से होने वाली तबाही को काफी हद तक रोका जा सकता है।
अब वक्त है—ग्लोबल वार्मिंग से नहीं, समाधान का हिस्सा बनने का।
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