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संस्कार तभी संभव है जब सांस्कृतिक परम्पराओं को अपनाया जाय : विराज गांगुली ।

  चिरेका के नाट्यकर्मी से पारो शैवलिनी की बातचीत। विराज गांगुली एक ऐसा नाम है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं। पश्चि...

 


चिरेका के नाट्यकर्मी से पारो शैवलिनी की बातचीत।

विराज गांगुली एक ऐसा नाम है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं। पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में जन्मे कालीपद गांगुली के पाँच पुत्र व तीन पुत्री में से एक हैं। 1985 में ये पहली बार चित्तरंजन आये थे अप्रेंटिस की परीक्षा देने। पहली बार में ही इन्होंने परीक्षा पास की और एक साल की ट्रेनिंग के बाद उन्नीस सौ छियासी(1986) में चित्तरंजन रेल कारखाने के एच एम एस यानि हैवी मशीन शाप (08 नम्बर) में ज्वाइन किया। विराज गांगुली ने बताया,मेरे आठ भाई बहनों में किसी को भी नाटक से कोई लगाव नहीं है। सिर्फ मेरे पिताश्री को अभिनय का शौख था। मिदनापुर जिला के कोलाघाट में एक बार शाहजहाँ नाटक में औरंगजेब की भूमिका का निर्वाह किया था। जहाँ तक मेरे अभिनय यात्रा की बात है,मैं 6-7साल की उम्र से ही बाल कलाकार के रूप में इसकी शुरुआत अग्रदूत लिखित बंगला नाटक अंतराल से हुआ जिसका मंचन मिदनापुर के ही रवीन्द्र नगर में हुआ था।आठ साल तक बाल कलाकार रहने के बाद सोलह साल की उम्र में उसी मंच पर रौशन लाल नामक बंगला प्ले में अभिनय किया। जो आज तक चित्तरंजन में भी बरकरार है।इतना ही नहीं चित्तरंजन से लेकर कोलकाता तक इन्हें नाटक,राजनीति,वाद-विवाद समीक्षक के तौर पर भी आमंत्रित किया जाता है। इनकी रचनाएँ ख़ासकर बंगला कविता बारावनी की अजयेर बाँके,हिन्दुस्तान केबल्स की उत्तरण,देश प्रेमी, प्रान्तोभूमि तथा चित्तरंजन से प्रकाशित चिरेका राजभाषा की हिंदी पत्रिका अजयधारा,आंचलिक संघति में स्थान मिलता रहता है। एक अन्य सवाल का जवाब देते हुए विराज गांगुली ने बताया,अबतक लगभग 60-70 नाटकों में से एक,बैधी (बंगला) गुमनाम राही (हिंदी)नाटक सबसे बेहतर लगता है।क्योंकि ये नाटक समाज के सड़े गले,दकियानुसी विचारों को जमकर लताड़ता है।


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