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हिमाचल प्रदेश में वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन में चुनौतियाँ और हाई कोर्ट के आदेशों के साथ टकराव।

 हिमाचल प्रदेश में वन अधिकार अधिनियम (FRA, 2006) के तहत भूमिहीन और जनजातीय समुदायों को वन भूमि पर अधिकार देने की घोषणा ने उम्मीदें जगाई थीं।...


 हिमाचल प्रदेश में वन अधिकार अधिनियम (FRA, 2006) के तहत भूमिहीन और जनजातीय समुदायों को वन भूमि पर अधिकार देने की घोषणा ने उम्मीदें जगाई थीं। लेकिन जमीनी हकीकत निराशाजनक है। यह योजना, जिसका उद्देश्य गरीब और भूमिहीन समुदायों को सशक्त करना था, अब प्रभावशाली अतिक्रमणकर्ताओं के पक्ष में झुकी हुई प्रतीत हो रही है। इससे न केवल सामाजिक अन्याय बढ़ रहा है, बल्कि हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के वन भूमि से बेदखली के आदेशों के साथ सीधा टकराव भी पैदा हो रहा है। यह स्थिति राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और भविष्य के दृष्टिकोण से गंभीर सवाल उठाती है।

 **1. राजनीतिक आयाम**

हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा वन अधिकार अधिनियम के तहत नौतोड़ (वन भूमि हस्तांतरण) और व्यक्तिगत/सामुदायिक अधिकारों को मान्यता देने की प्रक्रिया को तेज करने का दावा किया गया है। लेकिन यह प्रक्रिया हाई कोर्ट के उस आदेश के खिलाफ जाती है, जिसमें अवैध अतिक्रमणकर्ताओं को वन भूमि से बेदखल करने का निर्देश दिया गया है। यह टकराव निम्नलिखित उलझनों को जन्म दे रहा है:

- **चुनावी लाभ का दांव**: प्रभावशाली अतिक्रमणकर्ता, जो अक्सर स्थानीय नेताओं या बड़े भूस्वामियों से जुड़े होते हैं, को नियमितीकरण का लाभ देकर सरकार राजनीतिक समर्थन हासिल करने की कोशिश कर सकती है। यह गरीब और भूमिहीन समुदायों के साथ विश्वासघात है।

- **कानूनी उलझन**: हाई कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन सरकार की विश्वसनीयता को कमजोर करेगा और कानूनी चुनौतियों को बढ़ाएगा। इससे प्रशासनिक अराजकता का खतरा है।

- **आंदोलन की आशंका**: हिमाचल प्रदेश किसान सभा जैसे संगठन पहले से ही धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। यदि यह अन्याय जारी रहा, तो व्यापक आंदोलन और कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है।

 **2. सामाजिक आयाम**

वन अधिकार अधिनियम का मूल उद्देश्य जनजातीय और परंपरागत वनवासियों को उनके ऐतिहासिक अधिकार देना था। लेकिन वर्तमान में यह योजना सामाजिक असमानता को और गहरा रही है। प्रमुख मुद्दे और उलझनें हैं:

- **भूमिहीनों की उपेक्षा**: जो समुदाय वास्तव में इस कानून के पात्र हैं, जैसे अनुसूचित जनजाति (ST) और अनुसूचित जाति (SC), उन्हें अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है। इसके विपरीत, प्रभावशाली अतिक्रमणकर्ताओं को नियमितीकरण का लाभ मिलने की संभावना है।

- **सामुदायिक तनाव**: भूमिहीन और अतिक्रमणकर्ताओं के बीच बढ़ता असंतोष सामुदायिक तनाव को जन्म दे सकता है, जिससे स्थानीय स्तर पर हिंसा या विरोध की स्थिति बन सकती है।

- **जातिगत असंतुलन**: गैर-जनजातीय गरीब समुदायों को इस प्रक्रिया में अक्सर नजरअंदाज किया जा रहा है, जिससे सामाजिक एकता कमजोर हो रही है।


 **3. आर्थिक आयाम**

हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था कृषि, पर्यटन और वन संसाधनों पर निर्भर है। लेकिन वन अधिकार अधिनियम के गलत कार्यान्वयन से आर्थिक संकट पैदा हो सकता है। प्रमुख उलझनें हैं:

- **आर्थिक असमानता**: प्रभावशाली अतिक्रमणकर्ताओं को लाभ मिलने से धन का केंद्रीकरण होगा, जबकि भूमिहीन समुदायों की आर्थिक स्थिति और खराब होगी। यह ग्रामीण गरीबी को बढ़ाएगा।

- **कृषि और आजीविका पर प्रभाव**: भूमिहीन समुदायों को जमीन न मिलने से उनकी वन-आधारित आजीविका प्रभावित होगी, जिससे पलायन बढ़ेगा। सीमावर्ती क्षेत्रों में जनसंख्या कम होने से राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी असर पड़ेगा।

- **पर्यटन को नुकसान**: अवैध अतिक्रमण और वन भूमि का व्यावसायिक उपयोग (जैसे रिसॉर्ट्स) पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएगा, जिससे पर्यटन उद्योग प्रभावित होगा।


 **4. भविष्य की चुनौतियाँ और उलझनें**

वन अधिकार अधिनियम का गलत कार्यान्वयन और हाई कोर्ट के आदेशों के साथ टकराव भविष्य में कई गंभीर समस्याएँ पैदा कर सकता है:

- **कानूनी और प्रशासनिक अराजकता**: हाई कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन और अतिक्रमणकर्ताओं को नियमित करने की प्रक्रिया कानूनी चुनौतियों को बढ़ाएगी। इससे FRA की प्रक्रिया और जटिल हो जाएगी।

- **पर्यावरणीय क्षति**: बड़े पैमाने पर वन भूमि का हस्तांतरण और अतिक्रमण से जैव-विविधता और जलवायु प्रभावित होगी। हिमाचल में 67% वन भूमि का अनियंत्रित दोहन दीर्घकालिक पर्यावरणीय संकट को जन्म देगा।

- **सामाजिक अस्थिरता**: यदि भूमिहीन समुदायों को न्याय नहीं मिला, तो सामाजिक असंतोष बढ़ेगा। यह उग्रवादी समूहों या वैकल्पिक संगठनों को बढ़ावा दे सकता है।


 **मांग**

हिमाचल प्रदेश में वन अधिकार अधिनियम का कार्यान्वयन न केवल सामाजिक अन्याय को बढ़ा रहा है, बल्कि हाई कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन कर कानूनी और प्रशासनिक संकट भी पैदा कर रहा है। यह योजना तब तक सफल नहीं हो सकती, जब तक प्रभावशाली अतिक्रमणकर्ताओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं की जाती और भूमिहीन समुदायों को प्राथमिकता नहीं दी जाती। हम मांग करते हैं कि:

1. सरकार हाई कोर्ट के आदेशों का पालन करे और अवैध अतिक्रमणकर्ताओं को तुरंत बेदखल करे।

2. FRA के तहत दावों की जांच के लिए एक स्वतंत्र और पारदर्शी समिति गठित की जाए।

3. भूमिहीन और जनजातीय समुदायों को प्राथमिकता दी जाए, और उनकी जागरूकता के लिए विशेष अभियान चलाए जाएं।

4. वन विभाग और अन्य विभागों के बीच समन्वय स्थापित कर प्रक्रिया को सरल और तेज किया जाए।

5. पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने के लिए पुनर्वनीकरण और संरक्षण योजनाएँ लागू की जाएँ।


हिमाचल प्रदेश की सरकार को इस संवेदनशील मुद्दे पर तत्काल और प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है, ताकि सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता और पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित की जा सके। 

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